⧭चन्दनं शीतलं लोके,चन्दनादपि चन्द्रमाः~~
⧭चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये शीतला साधुसंगतिः~~
⧭अर्थात् : संसार में चन्दन को शीतल ~~माना जाता है लेकिन चन्द्रमा चन्दन से भी शीतल होता है | अच्छे मित्रों का साथ चन्द्र और चन्दन दोनों की तुलना में अधिक शीतलता देने वाला होता है |
श्लोक 2
⬀पुस्तकस्था तु या विद्या,परहस्तगतं च धनम् |
⬊कार्यकाले समुत्तपन्ने न सा विद्या न तद् धनम् ||
⬉अर्थात् : पुस्तक में रखी विद्या तथा दूसरे के हाथ में गया धन~~ये दोनों ही ज़रूरत के समय हमारे किसी भी काम नहीं आया करते |
श्लोक 3
⬉विद्या मित्रं प्रवासेषु,भार्या मित्रं गृहेषु च |
व्याधितस्यौषधं मित्रं, धर्मो मित्रं मृतस्य च ||
अर्थात् : ज्ञान यात्रा में,पत्नी घर में, औषध ~~रोगी का तथा धर्म मृतक का ( सबसे बड़ा ) मित्र होता है |
श्लोक 4
⧬अलसस्य कुतो विद्या, अविद्यस्य कुतो धनम् |
अधनस्य कुतो मित्रम्, अमित्रस्य कुतः सुखम् ||
⧬अर्थात् : आलसी को विद्या कहाँ अनपढ़~~मूर्ख को धन कहाँ निर्धन को मित्र कहाँ और अमित्र को सुख कहाँ |
श्लोक 5
चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् |
⧭तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ||
अर्थात् : ( अर्जुन ने श्री हरि से पूछा ) ~~हे कृष्ण ! यह मन चंचल और प्रमथन स्वभाव का तथा बलवान् और दृढ़ है ; उसका निग्रह ( वश में करना ) मैं वायु के समान अति दुष्कर मानता हूँ |
श्लोक 5
यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत् |
एवं परुषकारेण विना दैवं न सिद्ध्यति ||
अर्थात् : जैसे एक पहिये से रथ नहीं चल सकता है उसी प्रकार ~~बिना पुरुषार्थ के भाग्य सिद्ध नहीं हो सकता है |
श्लोक 6
बलवानप्यशक्तोऽसौ धनवानपि निर्धनः |
श्रुतवानपि मूर्खोऽसौ यो धर्मविमुखो जनः ||
⧭अर्थात्जो⧭⧭ व्यक्ति धर्म ( कर्तव्य ) से विमुख होता है वह~~ ( व्यक्ति ) बलवान् हो कर भी असमर्थ, धनवान् हो कर भी निर्धन तथा ज्ञानी हो कर भी मूर्ख होता है~~~
श्लोक 7
⧭⧭असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् |
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्येते ||
अर्थात् : ( श्री भगवान् बोले ) हे महाबाहो ! निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है लेकिन हे कुंतीपुत्र ! उसे अभ्यास और वैराग्य से वश में किया जा सकता है |
श्लोक 8
⬊⬊आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः |
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ||
⧭⧭अर्थात् : मनुष्यों के शरीर में रहने ~~वाला आलस्य ही ( उनका ) सबसे बड़ा शत्रु होता है | परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा )कोई अन्य मित्र नहीं होता ~~क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता~~
श्लोक 9
अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम् |
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् |
⧭⧭अर्थात् : यह मेरा है,यह उसका है ;~~ ~ऐसी सोच संकुचित चित्त वोले व्यक्तियों की होती है;इसके विपरीत उदारचरित वाले लोगों के लिए तो यह ~सम्पूर्ण धरती ही एक परिवार जैसी होती है~~~
श्लोक 10
⧭⧬अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् |
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ||
⧬⧬⧭⧭अर्थात् : महर्षि वेदव्यास जी ने अठारह पुराणों में दो विशिष्ट बातें कही हैं | पहली –परोपकार करना पुण्य होता है और दूसरी⧭⧭पाप का अर्थ होता है दूसरों को दुःख देना |
श्लोक 11
श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुंडलेन,
दानेन पाणिर्न तु कंकणेन,
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
⧭⧭विभाति कायः करुणापराणां,
परोपकारैर्न तु चन्दनेन⧭⧭
~अर्थात् : कानों की शोभा कुण्डलों से नहीं अपितु ज्ञान की बातें सुनने से होती है | हाथ दान करने से सुशोभित होते हैं न कि कंकणों से~~~यालु~~~सज्जन व्यक्तियों का शरीर चन्दन से नहीं बल्कि दूसरों का हित करने से शोभा पाता है~~
श्लोक 12
~~सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् |
वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः~~
⧭चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये शीतला साधुसंगतिः~~
⧭अर्थात् : संसार में चन्दन को शीतल ~~माना जाता है लेकिन चन्द्रमा चन्दन से भी शीतल होता है | अच्छे मित्रों का साथ चन्द्र और चन्दन दोनों की तुलना में अधिक शीतलता देने वाला होता है |
श्लोक 2
⬀पुस्तकस्था तु या विद्या,परहस्तगतं च धनम् |
⬊कार्यकाले समुत्तपन्ने न सा विद्या न तद् धनम् ||
⬉अर्थात् : पुस्तक में रखी विद्या तथा दूसरे के हाथ में गया धन~~ये दोनों ही ज़रूरत के समय हमारे किसी भी काम नहीं आया करते |
श्लोक 3
⬉विद्या मित्रं प्रवासेषु,भार्या मित्रं गृहेषु च |
व्याधितस्यौषधं मित्रं, धर्मो मित्रं मृतस्य च ||
अर्थात् : ज्ञान यात्रा में,पत्नी घर में, औषध ~~रोगी का तथा धर्म मृतक का ( सबसे बड़ा ) मित्र होता है |
श्लोक 4
⧬अलसस्य कुतो विद्या, अविद्यस्य कुतो धनम् |
अधनस्य कुतो मित्रम्, अमित्रस्य कुतः सुखम् ||
⧬अर्थात् : आलसी को विद्या कहाँ अनपढ़~~मूर्ख को धन कहाँ निर्धन को मित्र कहाँ और अमित्र को सुख कहाँ |
श्लोक 5
चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् |
⧭तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ||
अर्थात् : ( अर्जुन ने श्री हरि से पूछा ) ~~हे कृष्ण ! यह मन चंचल और प्रमथन स्वभाव का तथा बलवान् और दृढ़ है ; उसका निग्रह ( वश में करना ) मैं वायु के समान अति दुष्कर मानता हूँ |
श्लोक 5
यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत् |
एवं परुषकारेण विना दैवं न सिद्ध्यति ||
अर्थात् : जैसे एक पहिये से रथ नहीं चल सकता है उसी प्रकार ~~बिना पुरुषार्थ के भाग्य सिद्ध नहीं हो सकता है |
श्लोक 6
बलवानप्यशक्तोऽसौ धनवानपि निर्धनः |
श्रुतवानपि मूर्खोऽसौ यो धर्मविमुखो जनः ||
⧭अर्थात्जो⧭⧭ व्यक्ति धर्म ( कर्तव्य ) से विमुख होता है वह~~ ( व्यक्ति ) बलवान् हो कर भी असमर्थ, धनवान् हो कर भी निर्धन तथा ज्ञानी हो कर भी मूर्ख होता है~~~
श्लोक 7
⧭⧭असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् |
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्येते ||
अर्थात् : ( श्री भगवान् बोले ) हे महाबाहो ! निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है लेकिन हे कुंतीपुत्र ! उसे अभ्यास और वैराग्य से वश में किया जा सकता है |
श्लोक 8
⬊⬊आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः |
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ||
⧭⧭अर्थात् : मनुष्यों के शरीर में रहने ~~वाला आलस्य ही ( उनका ) सबसे बड़ा शत्रु होता है | परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा )कोई अन्य मित्र नहीं होता ~~क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता~~
श्लोक 9
अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम् |
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् |
⧭⧭अर्थात् : यह मेरा है,यह उसका है ;~~ ~ऐसी सोच संकुचित चित्त वोले व्यक्तियों की होती है;इसके विपरीत उदारचरित वाले लोगों के लिए तो यह ~सम्पूर्ण धरती ही एक परिवार जैसी होती है~~~
श्लोक 10
⧭⧬अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् |
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ||
⧬⧬⧭⧭अर्थात् : महर्षि वेदव्यास जी ने अठारह पुराणों में दो विशिष्ट बातें कही हैं | पहली –परोपकार करना पुण्य होता है और दूसरी⧭⧭पाप का अर्थ होता है दूसरों को दुःख देना |
श्लोक 11
श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुंडलेन,
दानेन पाणिर्न तु कंकणेन,
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
⧭⧭विभाति कायः करुणापराणां,
परोपकारैर्न तु चन्दनेन⧭⧭
~अर्थात् : कानों की शोभा कुण्डलों से नहीं अपितु ज्ञान की बातें सुनने से होती है | हाथ दान करने से सुशोभित होते हैं न कि कंकणों से~~~यालु~~~सज्जन व्यक्तियों का शरीर चन्दन से नहीं बल्कि दूसरों का हित करने से शोभा पाता है~~
श्लोक 12
~~सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् |
वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः~~
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